समता शब्द तो आज की राजनीति में और सामाजिक सोचविचारों में बहुत ही चर्चित है। समता की अवधारणा हमारे यहां उतनी ही पुरानी है जितना कि ब्रह्म ज्ञान। यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम धर्मों में समता केवल क्रमश: यहूदियों, ईसाइयों तथा मुस्लिमों के लिये है अन्य तो पापी हैं और उनका मोक्ष तब तक नहीं हो सकता कि जब तक वे अपना धर्म बदलकर इन धर्मों में न आ जाएं। अर्थात एक ईसाई के लिये मुस्लिम के साथ या एक मुस्लिम के लिये ईसाई के साथ समता नहीं हो सकती। यहां तक कि इन धर्मों में स्त्रियों की समता भी पुरुषों के साथ नहीं हो सकती। तभी तो स्त्री स्वातंत्र्य का आन्दोलन पश्चिम में १७९० के लगभग प्रारंभ हुआ था, और इस्लाम में तो आज भी ऐसा आन्दोलन छिट पुट ही है।
ब्रह्मज्ञान की चर्चा तो ऋषि उपनिषद काल अर्थात ईसा से लगभग ३५०० वर्ष पूर्व में करते हैं । याज्ञवल्क्य जो राजा जनक के समकालीन हैं, अर्थात महाभारत के लगभग ५०० वर्ष पहले के हैं, की पत्नी गार्गी उनसे ब्रह्म ज्ञान की शिक्षा लेती हैं, और एक अन्य गार्गी उनसे राजा जनक की सभा में शास्त्रार्थ करती हैं। यह तो हुई आदर्श की बात। संसार में एक अल्पसंख्या में लोग हमेशा अनैतिक व्यवहार करते आये हैं, किन्तु उनका विरोध भी हुआ है। यह भी सत्य है कि मुसलमानों के आक्रमण के बाद हमारा सांस्कृतिक पतन होता है और हमारे समाज में अन्य बुराइयों के साथ यह बुराई भी आ जाती है।
श्रीमद्भगवद्गीता में समता पर विस्तृत चर्चा है। ब्रह्मज्ञानी के लिये न केवल स्त्री पुरुष के बीच समता है वरन सभी प्राणियों के बीच समता है -
“ विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:।।(५.१८)
पण्डित तो ब्राह्मणों, गायों, हाथियों, कुत्तों और चाण्डालों में समता ही देखते हैं। सभी प्राणियों के साथ यथा स्थिति, यथा समय और यथा योग्य व्यवहार करना व्यवहार में समता होती है। इस समता के व्यवहार का उद्गम कोई अमूर्त उदात्त कल्पना नहीं है वरन पण्डित को वह अनुभूति समाधि की स्थिति में होती है, वही याथार्थिक सत्य है। उस सामाधिक अनुभूति का व्यवहार में ढालना उपरोक्त श्लोक में वर्णित है। ६.९ वें श्लोक में पुन: इस धारणा की पुष्टि की गई है। और ६.३२ वें श्लोक में अपने शरीर के अंगों को हम जिस तरह समान भाव से देखते हैं उसी तरह से सभी प्राणियों को अपने समान देखना समता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में समता शब्द का उपयोग सर्वप्रथम २.१५ वें श्लोक में आता है -
यं हि व्यथयंत्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।समदु:खसुखं धीरं सो-मॄतत्वाय कल्पते ।।
सुख और दु:ख में समता अनुभूति करने वाले धीर पुरुष को जीवनमुक्ति प्राप्त हो जाती है। अर्थात धीर पुरुष न तो सुख से विचलित होता और उसकी कामना भी नहीं करता तथा दु:ख आने पर उससे भी विचलित नहीं होता। इस तरह हम देखेंगे कि समता का मूल अर्थ है मन का 'अचंचल' अर्थात स्थिर रहना, विचारों तथा भावनाओं दोनों प्रकार की वृतियों से। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसा व्यक्ति पत्थर के समान हो गया। वह प्रतिक्रिया तो अवश्य करेगा और अत्यंत बुद्धि संगत प्रतिक्रिया करेगा न कि भावावेश में आकर कोई हानिकारक कार्य कर बैठेगा और फ़िर पछताएगा। गीता में ही कहा है कि क्रोध से मनुष्य मोहित हो जाता है, उसकी समृति विकृत हो जातीहै और फ़िर बुद्धि काम नहीं करती, अर्थात वह एक जानवर के समान कार्य करता है।
२.३८ वें श्लोक में समता के अर्थ का और विस्तार होता है। यहां अब सुख दु:ख के साथ लाभ तथा हानि में और जय तथा पराजय में भी समता की अनुभूति की बात है। ऐसी अनुभूति के साथ युद्ध करने में पाप नहीं पड़ेगा; क्योंकि अर्जुन का उस धर्मयुद्ध से विमुख होने में एक कारण हत्याओं के पाप का भी था। अपना कर्तव्य पूरी क्षमता तथा योग्यता के साथ करना है, किन्तु बिना किसी कामना के। २.४८वें श्लोक में इसके विस्तार में सिद्धि और असिद्धि भी आ जाती है और तब वह योग की बराबरी कर लेता है - 'समत्व योग'। अर्थात इस योग के द्वारा जीवन मुक्ति प्राप्त होने की संपुष्टि श्रीमद्भगवद्गीता कर रही हैं। और ४.२२ वें श्लोक में समझाया गया है कि सिद्धि और असिद्धि में समता रखने से वह व्यक्ति कर्मों के फ़लों से नहीं बँधता। यही बँधना तो दु;ख और सुख का और पाप का कारण है। यदि सफ़लता मिल गई तो वह भी मन में वासना के रूप में स्थापित हो गई और एक और अनावश्यक, वरन हानिकारक, बोझ बन गई। और यदि घटना से सीखा और उसे भूले, मन साफ़ हुआ और आगे के निर्णय भी उसी काल के लिये उपयुक्त, न कि मृत तथा क्षुद्र स्मृति के बोझ से दबे रहें।
५.१८वें श्लोक पर चर्चा तो हमने प्रारंभ में की थी। ५.१९ वें श्लोक में तो समता का इतना विस्तार होता है समता में स्थित व्यक्ति तो संसार पर ही विजय प्राप्त का लेता है। अर्थात संसार की घटनाएं उस पर प्रभाव नहीं डाल सकतीं, अब तो वह ब्रह्म में स्थित होकर ब्रह्म के समान निर्दोष हो गया है। अतएव ब्रह्म की साधना के लिये समता का भाव लाना साधना एक लिये बहुत सहायक होता है। वैसे यह दोनों परस्पर अन्योन्याश्रित हैं, एक से दूसरे के इये सहायता मिलती है। उसकी दृष्टि में जब सभी उसी ब्रह्म के ही रुप हैं, तब वह जो भी कार्य करेगा न्यायोचित ही होगा। ६.२९ वें श्लोक में भी इसी समदर्शिता की पुष्टि की गई है।
उपरोक्त समता की अवधारणा और प्रभाव किसी भी साधक के लिये उपयोगी हो सकते हैं। उसके धर्म, रंग जाति आदि से इसका कोई विरोध नहीं है; हो भी कैसे सकता है जो सभी प्राणियों में एकत्व देख रहा हो उसके लिये यह वस्त्र के समान भेद कोई अर्थ नहीं रखते।